एक डायरी लिखा करता था में ..
जब किसी बाग़ में बैठा
तुम्हारा इंतज़ार किया करता था
बाग़ के फूलो से ज्यादा
तुम्हारी यादे महका जाती थी मझे
और उस पल बन जाता था नए किस्सा
मन की गलियों में और फिजा भी महक जाती थी ...
और अब आज भी डायरी हाथ में है
लिखता हूँ हिसाब उसमे .....
और अब तुम्हारी यादे नहीं
तुम्हारी आवाज गूंज जाती है कानो में .....
और फिर बन जाता है नया किस्सा
और चाय की प्याली फिर ठंडी हो जाती है ......
No comments:
Post a Comment