Saturday, July 3, 2010

पिता की सीख तेरी शादी की शुभ बेला है .
विदाई का सोच मन बिलकुल अकेला
है जीगर के टुकड़े को सोप देनाकीसी ओर को
विधाता ने कैसा अजब खेल खेला है ......
अब से ससुर पिता ओर सास भी माता है
पति को खुश रखना मेरा धरम तुझे यही सिखाता है
अंगुली थाम के मेने तुझे चलना सिखलाया है
अपने आप पर विश्वास रखना ओर सच्चाई का पाठ पढाया है
वक़्त है बेटी हर पल बदलता रहता है
अमीरी में निरभिमानी ओर गरीबी में धीरजवान होना
मेरा धरम तुझसे ये कहता है
हार अंगूठी कंगन झुमके
ये सब दिखावे के गहने है
सहनशीलता ,शांती सबुरी
ये सब तुमको पहनने है
में तो असहाय पिता हूँ
आसू भी नहीं बहा पाता
बेटी को विदा कर घर से
मन छलनी हो जाता है
पराई नहीं होती कभी बेटी ....
तुम भी ये समझ लेना
इन प्यार भरी नसीहतो को
अपने जीवन में रख लेना
जीवन की भूल भूलाया में
पिता की आँखे पढ़ पाओगी तो
एक नहीं दोनों कुलो के
आँगन में उजियारा फैलाओगी ............

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